Monday, December 5, 2011

कुछ अन्कही बातें.



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सामने हो कर भी उनसे कुछ कह न पाए,
लफजो मे उलझे रहे, गुफतगु हम कर न पाए I
बेमतलब ही बूनतें रहे सपने हजारों
और अरमान चाहत के,
आलम जब आया सामने, ईज़हार हम कर न पाए II
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एक टक देखते रहे उन्हे दूर से ….
और चेहरा उन्का निहारते रहे मन कि तस्वीर से I
शाम निकल गई इसी असमन्जस मे,
पर उन कतारो के आगे कभी बढ न पाए II
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दिल कहता रहा उन्से बात कर…
अपनी चाहत कि गहराई अपने लफजो मे बया कर,
ये चिंगारी बूझ ना जाए रात ढलने से पहले
इन तारो को गवाह बना, तू अपनी मोहब्बत का ईज़हार कर… II
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भीड़ मे भी नीगाहे बस उन् पर बनी रही,
लाल लीवाज की छाई आंखो पर पड़ी रही
मौके की तलाश मे यूही भटकता रहे
खड़े थे वो सामने हमारे और हम बस आँख मचलते रहे   II
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सामने हो कर भी उनसे कुछ कह न पाए,
लफजो मे उलझे रहे, ईज़हार हम कर न पाए.....
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वकत की गाज हम पर आ गिड़ी....,
महफील मे जब उन्की उपस्थिति न मीली I
कुछ कहते  उससे पहले ही वो चले गए,
अरमान चाहत के सब बेमतलब रह गए,
लगा दि देर हमने बहुत
और इंतजार वो कर न पाए III
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